पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/८०

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की तरह की एक भाषा है। काश्मीरी के बहुत से शब्द-जैसे व्यक्तिवाचक, सर्वनाम अथवा घनिष्टताबोधक-प्रायः शिना के समान हैं । बहुत पहले से ही संस्कृत के प्रभाव में रहकर इसने अपने साहित्य का विकास अधिक किया है, इस कारण इसके शब्द भाण्डार पर संस्कृत या उसके अन्य अंगों का बहुत प्रभाव पड़ा है । विशेप करके पश्चिम पंजाब की लहन्दा भाषा का जो कि काश्मीर के दक्षिणी सीमा पर प्रचलित है । ईस्वी चौदहवें शतक से अट्ठारहवें शतक के आरम्भ तक काश्मीर मुसल्मानों के अधिकार में रहा है । इन पांच सौ वर्षों में बहुत लोग मुसल्मान हो गये, और इसी सूत्र से काश्मीरी भाषा में अनेक अरबी, फ़ारसी के शब्द भी सम्मिलित हो गये इसका प्रभाव बचे हिन्दुओं की भाषा पर भी पड़ा है। काश्मीरी में आदरणीय साहित्य है । १८७५ ई० में ईश्वर कौल ने संस्कृत भाषा के व्याकरणकी प्रणाली पर काश्मीर शब्दामृत नामक एक व्याकरण भी बनाया है। इन्हों ने इस भाषा की उच्चारण प्रणाली को बहुत सुधारा है, फिर भी वह सर्वथा निर्दोष नहीं हुई है । स्थान स्थान पर काश्मीरी भाषामें भिन्नता भी है. इसकी सबसे प्रधान भाषा काष्टवारी है । स्थानीय भाषाओं के नाम ‘दोड़ी' रामबनी और ‘पौगुली' है । काश्मीरी ही एक ऐसी पैशाची भाषा है, कि जिसके लिखने के वर्ण निजके हैं, उसे शारदा कहते हैं । प्राचीन पुस्तके इसी वर्ण में लिखी हुई हैं।

'मैया' एक और भाषा है. जो वास्तवमें बिगड़ी हुई शिना है, यही नहीं, कोहिस्तान में शिनाके आधारसे बनी हुई, बहुतसी बोलियां बोली जाती हैं। परन्तु दक्षिणी भागमें लहन्दा और पश्तो का अधिक प्रभाव देखा जाता है। ये सब भाषायें कोहिस्तानी कहलाती हैं, परन्तु इनमें 'मैया' को प्रधानता है। इन भाषाओं का उल्लेख विडल्फ ने अपने ग्रन्थ ट्राइब्स आव दि हिन्दुकुश, में किया है । इनमें से किसी में न तो साहित्य है. और न लिखने के वर्ण । कोहिस्तान पर बहुत समय तक अफ़गानों का अधिकार रहा है, इसीलिये वहां अब पश्तो का ही अधिक प्रचार है, कोहिस्तानी उन मुसल्मानों की ही भाषा रह गई है, जिनको अपनी प्राचीन भाषा से प्रेम है।