पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/८९

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पहले पृष्टों में मैं ने इस सिद्धान्त को नहीं स्वीकार किया है, कि आर्यजाति बाहर से आई। मैंने प्रमाणों के द्वारा यह सिद्ध किया है कि आर्य जाति भारत के पश्चिमोत्तर भाग से ही आकर भारतवर्ष में फैली। यद्यपि इस सिद्धान्त के मानने से भी मध्यदेश में आर्यों के एक दल का पहले और दूसरे दल का बाद में आना स्वीकार किया जा सकता है, किन्तु इस स्वीकृति की बाधक वह विचार-परम्परा है जो इस बात को भलीभांति प्रमाणित कर चुकी है कि पश्चिमागत आर्यजाति का समूह चिरकाल तक सप्रसिन्धु में रहा, और वहीं वैदिक संस्कृति और सभ्यता का विकास हुआ। मेरा विचार है पूर्वागत और नवागत आर्य समूह की कल्पना, और इस सिद्धान्त के आधार पर अन्तरंग और वहिरंग भाषाओं की सृष्टि युक्ति संगत नहीं, हर्ष है कि आजकल इस विचार का विरोध होने लगा है।

कुछ विवेचक भाषा विभिन्नता सिद्धान्त को साधारण मानते हैं, उनका कथन है कि विभिन्नतायें वे विशेषतायें नहीं बन सकतीं, जो किसी एक भाषा को दूसरी भाषा से अलग करती हैं । वहिगंगभाषा की जिन विभिन्न- ताओं के आधार पर अंतरंग भाषा को उससे अलग किया जाता है, वे स्वयं उसमें मौजूद हैं। इन लोगों ने जो प्रमाण दिये हैं, उनमें से कुछ नीचे लिखे जाते हैं। अंतरंग और वहिरंग भाषा की उपरिलिखित विभि- न्नताओं की चर्चा करके "हिन्दी भाषा और साहित्य” नामक ग्रन्थ में यह लिखा गया है -

"इसमत का अब खण्डन होने लगा है। और दोनों प्रकार की भाषाओं के भेद के जो कारण ऊपर दिखाये गये हैं, वे अन्यथा सिद्ध हैं। जैसे----'स' का 'ह' हो जाना केवल वहिरंग भाषा काही लक्षण नहीं हैं, किन्तु अन्तरंग मानी जाने वाली पश्चिमी हिन्दी में भी ऐसा होता है । इसके तस्य-तस्स-तास-ताह-ता (ताको-ताहि इत्यादि ) करिष्यति- करिस्सदि-करिसद-करिहइ-करि है, एवं केसरी से केहरी आदि बहुत से उदाहरण मिलते हैं। इसी प्रकार वहिरंग मानी जाने वाली भाषाओं में