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बंगला का 'के, (जैसे राम के), तातार देशीय अन्त्यवर्ण 'क, से आगत हुआ है। डाक्टर 'काल्डवेल, अनुमान करते हैं कि द्राविड़ भाषा के 'कु, से हिन्दी भाषा का 'को' लिया गया है। वे यह भी कहते हैं कि हिन्दी प्रभृति देशी भाषायें द्राविड़ भाषा से उत्पन्न हुई हैं। डाक्टर हार्नली और राजा राजेन्द्र लाल मित्र ने इन सबमतों का अयुक्त होना सिद्ध किया है।" डाक्टर हार्नली की सम्मति यहां उठाई जाती है—
"डाक्टर 'काल्डवेड, का कथन है कि आर्यगण, आर्यावर्त जय करके जितना आगे बढ़ने लगे, उतना ही देश में प्रचलित अनार्य भाषा संस्कृत शब्दों के ऐश्वर्य द्वारा पुष्टि लाभ करने लगी। इसलिये यह भ्रम होता है, कि अनार्य भाषायें संस्कृत से उत्पन्न हैं। किन्तु संस्कृत का प्रभाव कितना ही प्रबल क्यों न हो, इन सब भाषाओं का व्याकरण उसके द्वारा परिवर्तित न हो सका। इसके उत्तर में डाकर हार्नली कहते हैं, आर्यगण बहुत समय तक आर्यावर्त में रह कर सहसा अनार्य गणों की भाषा ग्रहण कर लेंगे, यह बात विश्वास योग्य नहीं। उनलोगों ने चिरकाल तक संस्कृत जातीय पालि और प्राकृतभाषा का व्यवहार किया था, यह बात विशेष रूप से प्रमाणित हो गई है। नाटकादिकों के प्राकृत द्वारा यह भी दृष्टिगत होता है कि विजित अनार्यों ने भी अपने प्रभुओं की भाषा को ग्रहण कर लिया था। इतने समय तक हिन्दुलोग अपनी भाषा और व्याकरण को अनार्यगण में प्रचलित रख कर भी अन्त में क्यों अनार्य व्याकरण के शरणागत होंगे, यह विचारणीय है। दूसरी बात यह कि देशभाषाओं की उत्पत्ति के समय (आर्यभाषा की दीर्घकाल व्यापी आखण्ड राजत्व के उपरान्त) विजित अनार्यगण की भाषा देश में प्रचलित थी। इसका भी कोई प्रमाण नहीं है। इतिहासमें अवश्य कभी कभी यह भी देखा गया है, कि विजेता जातियों ने विजित जातियों का व्याकरण ग्रहण कर लिया है, जैसे नार्मन लोगों ने इंग्लैंड में और अरब एवं तुर्की लोगों ने आर्यावर्त में तथा फ्रान्सवालों ने गल में। किन्तु इन सब स्थानों में विजेता लोग विजित लोगों की अपेक्षा अल्प शिक्षित थे। उपनिवेश स्थापना के प्रारम्भ काल से ही भाषाग्रहण का सूत्रपात उन्होंने कर दिया था। विजयी जाति बहुकाल पर्यन्त अपनी भाषा और स्वातन्त्र्य