पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/९४

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गौरव की रक्षा करके अन्त में असभ्य जातियों के निकट उसको विसर्जित कर दे, इतिहास में कहीं यह बात दृष्टिगत नहीं होती ।"१

देशीय भाषाओं को समस्त विभक्ति प्राकृत से ही प्राप्त हुई है, इस बात को डाक्टर राजेन्द्रलाल मित्र, हार्नली, और अन्य जर्मन पण्डितोंने दिखलाने की चेष्टा की है। और विद्वानों ने भी इस सिद्धान्त को पुष्ट किया है। मैं क्रमशः प्रत्येक विभक्तियों के विषय में उन लोगों के विचारों का उल्लेख करता हूं।

(१) कर्ता कारक में भूतकालिक सकर्मक क्रिया के साथ ब्रजभाषा एवम् खड़ी बोली में 'ने' का प्रयोग होता है, किन्तु अवधी में ऐसा नहीं होता ब्रज भाषा में भी प्रायः कवियों ने इस प्रयोग का त्याग किया है, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि अवधी के समान ब्रजभाषा में 'ने' का प्रयोग होता ही नहीं । प्रथमा एक बचन में कहीं कहीं कर्ता के साथ 'ए' का प्रयोग देखा जाता है। यथा- “शु अणेहु शिञ्चाण कम्पके शामीए निदणके बिशोहेदि) मृ० क० ३ अंक” बँगला भाषा में भी पहले इस प्रकार का प्रयोग देखा जाता है --- यथा

कदाचित ना दे सिद्धहेनो रूप ठान

कोन मते विधाताए करिछे निर्माण । रामेश्वरी महाभारत पृ० ८६ “किन्तु अब बँगलामें भी प्रथम एक वचन में इस 'ए' का अभाव है, अब बंगला में प्रथमा का रूप संस्कृत के समान होता है, किन्तु अनुस्वार अथवा बिसर्ग वर्जित" । २ प्रश्न यह है कि प्राकृत भाषा के उक्त 'ए' का सम्बन्ध क्या हमारी हिन्दी भाषा के 'ने' से है ?

'एक विद्वान् की सम्मति है कि यह 'ने' वास्तव में करण कारक का चिन्ह है. जो हिन्दी में गृहीत कर्मवाच्य रूप के कारण आया है, 'संस्कृत में करण कारक का 'इन' प्राकृत में 'एण' हो जाता है, इसी 'इन का वर्ण विपरीत हिन्दी रूप में 'ने' है" ३

१ बंगभाषा और साहित्य-पृ० ३६

२-वंगभाषा और साहित्य ३८ पृष्ट ।

३-दे० हिन्दी भाषा और साहित्य का पृ० १३८ ।