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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/९५

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(२) कम और सम्प्रदान। टम्पका अनुमान है कि बँगला कर्म्म और सम्प्रदान कारक का 'के' संस्कृत के सप्तमी में प्रयुक्त 'कृते' शब्द से आया है। इस 'कृते' के निमित्तार्थक प्रयोग का उदाहरण स्थान स्थान पर मिलता है—यथा

वालिशो वत कामात्मा राजा दशरथो भृशम्।
प्रस्थापयामास बनं स्त्रीकृते यः प्रियंसुतम्॥

यह कृते शब्द प्राकृत में 'किते' किउ एवं 'को' इन तीनों रूपों में ही व्यवहृत हुआ है। इसी लिये टम्प का यह अनुमान है कि शेषोक्त 'को' के साथ हिन्दी के 'को' और बैंगला के 'के' का सम्बन्ध है"[]

'बँगभाषा और साहित्य', नामक ग्रन्थ के रचयिता टम्प की सम्मति से सहमत न होकर अपनी सम्मति यों प्रकट करते हैं—

"मैक्समूलर कहते हैं कि संस्कृत के स्वार्थे 'क' से बैंगला का के (हिन्दी का को) आया है। पिछले समय में संस्कृत में स्वार्थे 'क' का प्रयोग अधिकतर देखा जाता है। मैं मैक्समूलर के मत को ही समीचीन समझता हूं।[]

श्रीमान् पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी कहते हैं—

"पुरानी संस्कृत का एक शब्द कृते, है जिसका अर्थ है (लिये) होते होते इसका रूपान्तर 'कहुँ' हुआ, वर्त्तमान 'को' इसीका अपभ्रंश है" हिन्दी- भाषा की उत्पत्ति पृ॰ ७०

एक विद्वान् की सम्मति और सुनिये—

"संस्कृत रूप 'कृते' प्राकृत में किते हो गया, और नियमानुसार त का लोप होने से 'किये' हुआ, और फिर वही के में परिणत हो गया। 'को' प्रत्यय संस्कृत के कर्म्मकारक के नपुंसक 'कृतं' से हुआ। प्राकृत में 'कृतं' बदल कर 'कितो' हुआ, और त के लोप होने से 'किओ' बना, और अन्त में उसने 'को' का रूप धारण कर लिया"[]


  1. १.० १.१ बंगभाषा और साहित्य पृ॰ ३९।,
  2. देखिये (ओरिजन) आफ़ दी हिन्दी लैंग्वेज पृ॰ ११।