पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१००

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सके और साहित्यदर्पणकार एवं रसगंगाधरकार ने इसी पक्ष को विमृष्ट करके स्थिर कर दिया।

गुणों का स्थान

यह तो हुई मत-भेद की बात। अब यह सोचिए कि साहित्य-शास्त्र में गुणों का स्थान क्या है? इस विषय में वामन और भोजदेव दोनों कहते हैं—

युवतेरिव रूपमङ्ग! काव्यं स्वदते शुद्धगुणं तदप्यतीव।
विहितप्रणयं निरन्तरामिः सदलङ्कारविकल्पकल्पनामिः॥
यदि भवति वचश्च्युत गुणेभ्यो वपुरिव यौवनवन्ध्यमङ्गनायाः।
अपि जनदयितानि टुर्भगत्वं नियतमलङ्करणानि सअयन्ते॥

अर्थात् काव्य युवती के रूप के समान है; क्योंकि वह भी अच्छे गुणों (लावण्य आदि माधुर्य आदि) से युक्त और एक के बाद एक आए हुए अनेक अलंकारों की कल्पनाओं से संबद्ध होकर आनंद देता है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस तरह स्त्री के रूप के लिये लावण्यादि की और आभूषणों की आवश्यकता है, उसी प्रकार काव्य में भी गुणों और अलंकारों की आवश्यकता है। पर यदि कवि की उक्ति गुणों से रहित हो तो कामिनी के यौवन-रहित शरीर की तरह होती है; अतः गुणों का होना काव्य के लिये अत्यावश्यक है। इसके अतिरिक्त भोजदेव ने तो यह भी लिखा है कि—