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प्रदान करता है, वह शब्दगुण होता है; जो[१] शब्द से प्रतिपादित की जानेवाली वस्तु को उत्कृष्ट बनाता है, वह अर्थ-गुण होता है; और जो[२] शब्द और अर्थ दोनों को उपकृत करता है, वह उभयगुण होता है।
दंडी ने इन्हें "विशिष्ट[३] रचना के प्राण" माना है; और वामन का कहना है कि—"काव्य[४] में जो शोभा होती है—जिसके कारण काव्य को काव्य कहा जाता है, उस शोभा के उत्पादक धर्मों का नाम गुण है"।
इस सबका तथा इन सब ग्रंथों में विवेचित गुणों के लक्षणादि का निष्कर्ष यह है कि जो वस्तु शब्द को, अर्थ को अथवा उन दोनों को उत्कृष्ट बनाती है, उसका नाम गुण है।
अब इस बात का विवेचन आरम्भ हुआ कि—जब गुण भी शब्द और अर्थ को उत्कृष्ट बनाते हैं और अलंकार भी, तब इन दोनों में भेद क्या है? क्यों न गुणों को भी अलंकार ही समझ लिया जाय? इसका उत्तर दंडी ने यों दिया कि गुण रचना के प्राण हैं और अलंकार काव्य में शोभा को उत्पन्न करनेवाले; अर्थात् गुणों से काव्य में काव्यत्व आता है;