पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१०४

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काव्यप्रकाशकार मम्मट ने प्राचीनों के विचारों पर विप्रतिपत्ति की और कहा कि यदि आप गुणों को ही काव्य मे काव्यत्व लानेवाले मानते हैं, तो जिन काव्यों में ओज आदि गुण तो हों और रसादिक न हो, उन्हें भी काव्य कहा जा सकेगा। उदाहरण के लिये कल्पना कीजिए कि कोई मनुष्य 'इस पहाड़ पर बड़ी आग जल रही है, यह बहुतेरा धुआँ निकल रहा है' इस बात को श्लोक बनाकर यों बोले कि—

'अद्रावत्र प्रज्वलत्यग्निरुचैः प्राज्यः प्रोद्यन्नुल्लसत्प्रेष धूमः।'

तो इस वाक्य में आपके हिसाब से ओज गुण तो हुआ ही; क्योंकि आप रस के साथ तो गुणों का कोई संबंध मानते नहीं, केवल रचना के साथ मानते हैं, सो यहाँ गाढ़ रचना है ही। अतः यह भी काव्य होना चाहिए; क्योंकि जो वस्तु काव्य में काव्यत्व लाती है, वह (ओज गुण) यहाँ भी विद्यमान है। पर, बताइए, कौन सहृदय ऐसा होगा जो केवल रचना के कारण ही इसे काव्य मानने लगे? अतः यो मानना चाहिए कि काव्य में काव्यत्व लानेवाली चीजें तो रसादिक व्यग्य हैं, और उन्हें उत्कृष्ट बनानेवाजे जो धर्म हैं, उनका नाम है गुण; जैसे कि मनुष्य को जीवित बनानेवाला प्रात्मा है, और उसे उत्कृष्ट बनानेवाले हैं शूरवीरता आदि गुण[१]


  1. 'ये रसस्पाङ्गिनो धर्माः शौर्यादय इवात्मनः। उत्कर्षहेतवस्ते स्युरचलस्थितयो गुणाः।' (काव्यप्रकाशः); (रसस्वेति-अलक्ष्यक्रमोपलक्षणम्, इत्युद्योते नागेशः)।