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पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१०८

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माधुर्य कहते हैं। आपने पहले दो गुणों को रस का धर्म बताया और अब उन्हें चित्तवृत्तिरूप कह रहे हैं। ज़रा सोचिए तो सही कि रति (जो एक प्रकार की चित्तवृत्ति है) रूप रस का धर्म द्रुतिरूप चित्तवृत्ति कैसे हो सकती है? क्या एक चित्तवृत्ति का दूसरी चित्तवृत्ति धर्म होती है? अतः यह सब अविचारिताभिधान है।

इसके बाद पंडितराज ने गुणों के स्वरूप का प्रामाणिक रूप से निर्णय करके यह स्थिर कर दिया कि वास्तव में द्रुती, दीप्ति और विकास नामक चित्तवृत्तियों के नाम ही माधुर्य, ओज और प्रसाद हैं; और शृंगारादिक रस उनके प्रयोजक हैं, अतः उन्हें मधुर आदि कहा जाता है। सो यह मानना चाहिए कि गुण रसों के धर्म नहीं किंतु स्वतंत्र चित्तवृत्तियाँ हैं, और वे उन उन शब्दों, अर्थों, रसों और रचनाओं से प्रयुक्त होकर रस को उत्कृष्ट बनाती हैं।

भाव

प्रस्तुत पुस्तक के इस भाग में केवल व्यभिचारी भाव रह जाते हैं; पर उनके विषय में इस समय कुछ विशेष वक्तव्य नहीं है, क्योंकि उनके विषय में विशेष मतभेद नहीं है; वे भरत के समय से आज-दिन तक तेंतीस के तेंतीस ही हैं, न किसी ने उन्हें घटाया, न बढ़ाया। प्रस्तुत पुस्तक में लक्षण, स्वरूप तथा कार्य-कारण आदि सब बातों