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श्रीहरिः

हिंदी-रसगंगाधर
प्रथम भाग

तरनि-तनूजा-तट-तरुन तरुनीवृन्द मझार।
जे विहरत, ते करहु मुद-मङ्गल नन्दकुमार॥

मंगलाचरण

स्मृताऽपि तरुणातपं करुणया हरन्ती नृणा-
मभङ्गरतनुत्विषां बलयिता शतैर्विद्युताम्।
कलिन्दगिरिनन्दिनीतटसुरद्रुमालम्बिनी
मदीयमतिचुम्बिनी भवतु काऽपि कादम्बिनी॥

सुमिरत हू जो हरत नरन को तरुनातप करुना करिकैं।
घेरी शत-शत बिजुरिन तें जो भङ्ग रहित तन-दुति धरिकैं॥
कल कलिन्दतनया के तट के सुरतरु जाके हैं आश्रय।
सो मेघन की माल अलौकिक मम मति चुम्बन करहु सदय॥

जो केवल स्मरण करते ही मनुष्यों के तीन आतप (संसार के ताप) को, दया करके हरण कर लेती है, जो, जिनकी शरीर-