पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/११९

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कांति में भग्न होने का स्वभाव ही नहीं है, उन सैकड़ों बिजलियों (गोपागनाओं) से परिवृत है और जिसका श्रीकालिदी के तट के सुरतरु (कदंब) आलंबन हैं, वह अनिर्वचनीय मेघमाला (श्रीकृष्णचंद्र की मूर्त्ति) मेरी बुद्धि का चुंबन करनेवाली बने—मेरी बुद्धि में विराजमान रहे।


गुरु वन्दना

श्रीमज्ज्ञानेन्द्रभिक्षोरधिगतसकलब्रह्मविद्यापपञ्चः
काणादीराक्षपादीरपि गहनगिरो यो महेन्द्रादवेदीत्।
देवादेवाऽध्यगीष्ट स्मरहरनगरे शासनं जैमिनीयम्
शेषाङ्कप्राप्तशेषामलभणितिरभूत्सर्वविद्याधरो यः॥
पाषाणादपि पीयूषं स्यन्दते यस्य लीलया।
तं वन्दे पेरुभट्टाख्यं लक्ष्मीकान्तं महागुरुम्॥

जिन ज्ञानेन्द्र भिक्षु तें तीखी सविधि ब्रह्म-विद्या सगरी।
गुरु महेन्द्र तें कणभुज-गौतम-गहन-गिरा अध्ययन करी॥
शास्त्र जैमिनी को जिन सीख्यो खण्डदेव तें शिवनगरी।
पाइ शेष तें महाभाष्य जिन हृदय सक्ल विधान धरी॥

जिनकी लीला तें झरत शुचि पियूष पाषान।
लक्ष्मीपति तें पेरुभट वन्दौ गुरु सु-महान॥

जिन्होंने संपूर्ण ब्रह्मविद्या का विस्तार (वेदांत शास्त्र) श्रीमान ज्ञानेद्र भिक्षु से प्राप्त किया, कणाद और गौतम की