पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१३०

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पर आप यह नहीं कह सकते कि वह काव्य नहीं है; क्योंकि यदि उसे आप काव्य न मानें तो जिसे आप काव्य कह रहे हैं, उसे भी काव्य मानने के लिये कोई उद्यत न होगा। कारण यह है कि जिस "चमत्कारीपन" को काव्य का जीवन माना जाता है, वह इन दोनों में समान ही है। दूसरे, गुणत्व और अलंकारत्व का अनुगम नहीं है—अर्थान् आज दिन तक यह सिद्ध न हो सका कि गुणत्व और अलंकारत्व जिनमें रहते हैं, वे गुण और अलंकार अमुक अमुक ही हैं। उनकी संख्या अभी तक नियत ही न हो सकी; जिस आलंकारिक का जब जैसा विचार हुआ उसने, उसके अनुसार, उन्हें घटा दिया अथवा बढ़ा दिया। अतः गुणों और अलंकारों का लक्षण में समावेश करना उचित नहीं; क्योकि जो स्वयं ही निश्चित नहीं हैं, उनके द्वारा लक्षण क्या निश्चित हो सकेगा।

पर यदि आप कहे कि काव्य अथवा रस के धर्मों का नान गुण है और काव्य में शोभा उत्पन्न करनेवाले अथवा काव्य के धर्मों का नाम अलंकार है, इस तरह गुणत्व और अलंकारत्व का अनुगम हो जाता है—अर्थात् जिनमें ये लक्षण दिखाई दें, उन्हें गुण और अलंकार समझ लीजिए, उनकी संख्या नियत न हो सकी तो क्या हुआ। तथापि हम कहेंगे कि लक्षण में 'दोष रहित' कहना तो अयोग्य ही है; क्योकि लोक में "अमुक काव्य दोषयुक्त है" यह व्यवहार देखने में आता है। अर्थात् काव्य-पद का दोष रहित के लिये ही नहीं; दोष सहित के लिये