पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१३२

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उस तरह किसी को भी इस बात का ठीक ठीक अनुभव नही होता कि यह पद्य पूर्वार्ध में काव्य है और उत्तरार्ध में नहीं। अतः यह दृष्टांत यहाँ नहीं लग सकता। दृष्टांत के द्वारा अनुभव का अपलाप असंभव है—जो बात हमें प्रत्यक्ष दिखाई दे रही है, वह दृष्टांत से नहीं हटाई जा सकती।

एक और भी बात है कि जिसके कारण गुण एवं अलंकार काव्य लक्षण में प्रविष्ट नहीं किए जा सकते। वह यह है कि जिस तरह शुर-वीरता आदि आत्मा के धर्म हैं, वैसे ही गुण भी काव्य के आत्मा रस के धर्म हैं, और जिस तरह हारादिक शरीर को शोभित करनेवाली वस्तुएँ हैं, उसी तरह अलंकार भी काव्य को अलंकृत करनेवाले हैं। अतः जिस तरह वीरता अथवा हारादिक शरीर के निर्माण में उपयोगी नही है, इसी तरह ये भी काव्य के शरीर को सिद्ध करने—उसके स्वरूप का लक्षण बनाने—में उपयुक्त नहीं हो सकते।

यह तो हुई प्राचीनों की बात। अब नवीनों में से "साहित्य-दर्पणकार" बहुत प्रसिद्ध हैं। अच्छा, आइए, उनके "काव्यलक्षण" की भी परीक्षा कर डाले। उन्होंने "वाक्यं रसात्मकं काव्यम्" यह लक्षण बनाकर सिद्ध किया है कि "जिसमें रस हो वही काव्य है"। पर यह बन नहीं सकता; क्योंकि यदि ऐसा माने तो जिन काव्यों में वस्तु-वर्णन अथवा अलंकार-वर्णन ही प्रधान हैं, वे सब काव्य काव्य ही न रहेंगे। आप कहेंगे कि हमको यह स्वीकार है—हम उनको काव्य

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