पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१३६

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जब कि वेदादिक किसी प्रबल प्रमाण से यह सिद्ध किया गया हो कि अमुक वस्तु अमुक वस्तु का कारण है; पर हम संसार में कुछ स्थानों पर ऐसा देखते हों—उस वस्तु (कारण) के रहते हुए भी वह वस्तु (कार्य) उत्पन्न न हो, अथवा उसके न रहने पर भी वह उत्पन्न हो जाय, तब हमको, विवश होकर (क्योंकि वेदादिक झूठें तो हो नहीं सकते), यह मानना पड़ता है—इसका कारण, उस व्यक्ति का—जिसको कारण के बिना भी कार्य की प्राप्ति हो रही है अथवा कारण के होने पर भी कार्य की प्राप्ति नहीं हो रही है—पूर्वजन्म मे किए हुए, धर्म-अधर्म आदि हैं। पर यदि वेदादिक प्रबल प्रमाण के द्वारा कारण न बताए जाने पर, हमारे निश्चित किए हुए कारणों में भी, हम किसी वस्तु को किसी वस्तु का कारण बताकर जहाँ गड़बड़ आने लगे कह दे कि—इस बात को उसने पूर्वजन्म में कर लिया है, अतः ऐसा हो गया, तो भ्रम होने लगे—लोग किसी को भी किसी वस्तु का कारण बताने लगे। अतः पूर्वोक्त स्थल में पूर्व जन्म के व्युत्पत्ति और अभ्यास को कारण मानना उचित नहीं; क्योंकि व्युत्पत्ति और अभ्यास के बिना कविता हो ही न सके यह बात कुछ वेद में थोड़े ही लिखी हुई है कि जिसके लिये यह पंचायत करनी पड़े।

अब यदि आप कहें कि हम इस गड़बड़ में पड़ना नहीं चाहते, हम तो केवल अदृष्ट को ही कारण मान लेंगे। सो भी ठीक नहीं; क्योंकि बहुतेरे मनुष्य ऐसे देखने में आते हैं कि