पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१३९

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प्रतिभा क्यों नही उत्पन्न होती है इसके विषय में हम पहले ही कह चुके हैं कि वे व्युत्पत्ति और अभ्यास विलक्षण (विशेष प्रकार के) होते हैं। उन लोगों में वे वैसे नहीं होते; अतः उनसे काव्य नहीं बनाया जा सकता। अथवा, किसी विशेष प्रकार के पाप को उनकी प्रतिभा का प्रतिबंधक मान लेना चाहिए। आप कहेंगे कि आपको यह झगड़ा नया उठाना पड़ा, तो हम कहते है—यह नया नहीं है, यह तो तीनों को इकट्ठे कारण माननेवाले और केवल प्रतिभा अथवा शक्ति को कारण माननेवाले—दोनों के लिये समान ही आवश्यक है, क्योंकि प्रतिवादी जब मत्रादिको से, कुछ दिनों के लिये किसी अनेक काव्य बनानेवाले कवि की भी वाणी को रोक देता है, तो उससे काव्य नहीं बनाया जाता, यह देखा गया है।[१]


  1. यहाँ महामहापाध्याय श्रीगंगाधर शास्त्रीजी की टिप्पणी है, जिसका सारांश यह है—प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास—तीनों को सम्मिलित रूप से ही विशिष्ट काव्य का कारण मानना उचित है। विशिष्ट काव्य का अर्थ है अलौकिक वर्णन की निपुणता से युक्त कवि का कार्य। अब देखिए, शक्ति दो प्रकार की होती है—एक काव्य को उत्पन्न करनेवाली और दूसरी (कवि को) व्युत्पन्न करनेवाली। उनमें से दूसरी व्युत्पादिका—शक्ति का नाम ही निपुणता है। और अभ्यास से काव्य में अलौकिकता आती है। पहली शक्ति से पद जोड़ देने पर भी दूसरी शक्ति के न होने पर विलक्षण वाक्यार्थ का ज्ञान न होने के कारण कवि में अलोकिक वर्णन की निपुणता न हो सकेगी। अतः यही उचित है कि प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास तीनों को—सम्मिलित रूप—काव्य का कारण माना जाय।
    इस पर हमें कुछ लिखना है। सुनिए प्राचीन और नवीन सभी आचार्यों के मत से काव्य उसी का नाम है, जो चमत्कारी हो, केवल तुकबंदी-मात्र को किसी ने भी काव्य नहीं माना। अर्थात् जिसे आप विशिष्ट काव्य कहते है, उसी का नाम तो काव्य है। तब यह सिद्ध होता है—जिसे आप उत्पादिका शक्ति मानते है, वह काव्य की उत्पादिका तभी हो सकती है, जब कि उसमें पूर्वोक्त कवि कर्म को उत्पन्न करने की योग्यता हो, न कि केवल तुकबंदी करवा देने की। अतएव काव्यप्रकाशकार का "शक्तिर्निपुणता" इस श्लोक की व्याख्या करते हुए, शक्ति के विषय में यह लिखना सगत होता है कि "शक्तिः कवित्वबीजरूप संस्कारविशेषः, यां बिना काव्यं न प्रसरेत्, प्रसृतं वो पहसनीयं स्यात्।" (अर्थात् शक्ति एक प्रकार का संस्कार है, जो कि कविता का बीजरूप है, जिसके बिना काव्य फैल नहीं सकता अथवा यों कहिए कि फैलने पर भी उपहसनीय होता है। अन्यथा बिना शक्ति के बनाए हुए काव्य को उपहसनीय लिखना कुछ भी तात्पर्य न रख सकेगा, क्योकि बिना शक्ति के काव्य उत्पन्न ही नहीं होता, तब उपहास किसका होगा? अतः यह मानना चाहिए कि कान्यप्रकाशकार के हिसाब से अनुपहसनीय अथवा आपके हिसाब से विशिष्ट काव्य के उत्पन्न करनेवाली शक्ति का नाम ही, शक्ति है और उसे ही कहते है प्रतिभा! अतएव जब किसी की रचना चमत्कारी नहीं होती तो हम कहते है कि कवि में प्रतिभा नहीं है। साधारण पदयोजना की शक्ति को प्रतिभा के रूप में परिणत करना व्युत्पत्ति और अभ्यास का काम है। अतः उनको प्रतिभा का कारण मानना ही युक्तिसंगत है, सहकारी मानना नहीं। सो तीनों को सम्मिलित रूप में कारण मानने की अपेक्षा अंतिम दोनों को प्रतिभा का कारण मानना और केवल प्रतिभा को काव्य का कारण मानना, जैसा कि पंडितराज का मत है, वंचित जँचता है।