पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१६२

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इस कारण व्यंग्य के गौण होकर उसे सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं। "बातो से...जाने का निवारण कर रही है।" इस कथन मे "बातों से" यह तृतीया करण-अर्थ मे है; अतः स्पष्ट है कि वे (बा) जाने के निवारण की साधक हैं। पर यदि आप कहें कि-व्यंग्य भी तो वाच्य को सिद्ध कर सकता है, इस कारण हमने उसे गुणीभूत लिखा है, तो यह भी ठीक नही, क्योंकि यदि ऐसा करोगे तो "निःशेषच्युतचंदनम्..." आदिकों में भी "दूती-संभोग' आदि व्यंग्य भी नायक की अधमता को सिद्ध करते हैं, इस कारण वे भी गुणीभूत हो जायँगे। हॉ, यदि आप कहें कि "अश्रुधारा सहित ..बातो" की तो "जाने के बाद बहुत समय तक न ठहरना" यह सिद्ध कर देने से भी चरितार्थता हो सकती है; अतः व्यंग्य-सहित होने पर ही उनसे "जाने का निवारण" सिद्ध हो सकता है; तो पंडितराज कहते हैं-अच्छा, "उसके बाद न जी सकूँगी" इस व्यंग्य को वाच्यसिद्धि का अंग मानकर गौण समझ लीजिए; पर नायक-आदि विभाव, अश्रु-आदि अनुभाव एवं चित्त के आवेग आदि संचारी भावो के संयोग से ध्वनित होनेवाले विप्रलंभ-श्रृंगार के कारण इस काव्य को "ध्वनि-काव्य' कहा जाय वो कौन मना कर सकता है*[१]


  1. * इस बहस में पंडितराज अप्पय दीक्षित को परास्त न कर सके, क्योंकि मध्य में प्रतीत होनेवाले व्यंग्य के द्वारा भी ध्वनि एवं गुणीभूत व्यंग्य का व्यवहार होना काव्यप्रकाशकारादि साहित्य के प्राचीन