पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१७३

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व्यक्तः स तैर्विभावाद्यैः स्थायी भावो रसः स्मृतः।

अर्थात् स्थायी भाव (रति आदि) जब पूर्वोक्त विभावादिकों से व्यक्त होता है तो "रस" कहलाता है। और "व्यक्त होने" का अर्थ यह है कि जिसका अज्ञान रूप आवरण नष्ट हो गया है, उस चैतन्य का विषय होना—उसके द्वारा प्रकाशित होना। जैसे किसी बोरा आदि से ढँका हुआ दीपक, उस ढक्कन के हटा देने पर, पदार्थों को प्रकाशित करता है और स्वयं भी प्रकाशित होता है, इसी प्रकार आत्मा का चैतन्य विभावादि से मिश्रित रति आदि को प्रकाशित करता और स्वयं प्रकाशित होता है। रति आदि अंतःकरण के धर्म हैं और जितने अंतःकरण के धर्म हैं, उन सबको "साक्षिभास्य" माना गया है। "साक्षिभास्य" किसे कहते हैं सो भी समझ लीजिए। संसार के जितने पदार्थ है, उनको आत्मा अंतःकरण से संयुक्त होकर भासित करता है और अंतःकरण के धर्म—प्रेम आदि—उस साक्षात् देखनेवाले आत्मा के ही द्वारा प्रकाशित होते हैं। अब यह शंका होती है कि रति आदि, जो वासनारूप से अंतःकरण में रहते हैं, उनका केवल आत्मचैतन्य के द्वारा बोध हो सकता है; पर विभाव आदि पदार्थों—अर्थात् शकुंतला आदि—का, उसके द्वारा, कैसे भान होगा। इसका उत्तर यह है कि जैसे सपने में घोड़े आदि और जागते में (भ्रम होने पर) राँगे में चाँदी आदि साक्षिभास्य ही होती हैं, केवल आत्मा के द्वारा ही उनका भान होता है; क्योंकि वे कोई पदार्थ वो हैं नही, केवल