पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१७५

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पूर्वोक्त रीति से रस का आस्वादन होता है, पर इस अलौकिक क्रिया के न मानने पर भी काम चल सकता है, इस अभिप्राय से कहते हैं—अथवा यों समझना चाहिए—

सहृदय पुरुष जो विभावादिकों का आस्वादन करता है, उसका सहृदयता के कारण, उसके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ता है और उस प्रभाव के द्वारा, काव्य की व्यंजना से उत्पन्न की हुई उसकी चित्तवृत्ति, जिस रस के विभावादिकों का उसने आस्वादन किया है, उसके स्थायीभाव से युक्त अपने स्वरूपानंद को, जिसका वर्णन पहले हो चुका है, अपना विषय बना लेती है—अर्थात् तन्मय हो जाती है, जैसी कि सविकल्पक*[१] समाधि में योगी की चित्तवृत्ति हो जाती है। तात्पर्य यह कि उसकी चित्तवृत्ति को उस समय स्थायी भाव से युक्त आत्मानंद के अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ का बोध नहीं रहता। अर्थात् पूर्वोक्त व्यापार के बिना, विभावादिकों के आस्वादन के प्रभाव से ही, चित्तवृत्ति रति आदि सहित आत्मानंद का अनुभव करने लगती है। यह आनंद अन्य सांसारिक सुखों के समान नहीं है, क्योंकि वे सब सुख अंतःकरण की वृत्तियों से युक्त चैतन्यरूप होते हैं, उनके अनुभव के समय चैतन्य का और अंतःकरण की वृत्तियों का


  1. * समाधिया दो प्रकार की है—एक सप्रज्ञात और दूसरी असंप्रज्ञात; इन्ही का नाम सविकल्पक और निर्विकल्पक भी है। सविकल्पक समाधि में ज्ञाता और ज्ञेय का पृथक् पृथक् अनुसंधान रहता है; पर निर्विकल्पक में कुछ नहीं रहता, योगी ब्रह्मानंद में लीन हो जाता है।