पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

(६१)

योग रहता है; पर यह आनंद अंतःकरण की वृत्तियों से युक्त चैतन्यरूप नही, कितु शुद्ध चैतन्यरूप है; क्योंकि इस अनुभव के समय चित्तवृत्ति आनंदमय हो जाती है और आनंद अनवच्छिन्न रहता है, उसका अंतःकरण की वृत्तियों के द्वारा अवच्छेद नहीं रहता।

इस तरह, अभिनवगुप्ताचार्य ("ध्वनि" के टीकाकार) और मम्मट भट्ट (काव्यप्रकाशकार) आदि के ग्रंथों के वास्तविक तात्पर्य के अनुसार "अज्ञानरूप आवरण से रहित जो चैतन्य है, उससे युक्त रति आदि स्थायी भाव ही 'रस' हैं" यह स्थिर हुआ।

(ग)

वास्तव में तो आगे जो श्रुति हम लिखनेवाले हैं, उसके अनुसार, रति आदि से युक्त और आवरण-रहित चैतन्य का ही नाम 'रस' है।

अस्तु, कुछ भी हो, चाहे ज्ञानरूप आत्मा के द्वारा प्रकाशित होने वाले रति आदि को रस मानो अथवा रति आदि के विषय में होनेवाले ज्ञान को; दोनों ही तरह यह अवश्य सिद्ध है कि रस के स्वरूप में रति और चैतन्य दोनों का साथ है। हाँ, इतना भेद अवश्य है कि एक पक्ष मे चैतन्य विशेषण है और रति आदि विशेष्य और दूसरे पक्ष में रति आदि विशेषण हैं और चैतन्य विशेष्य। पर दोनों ही पक्षों में, विशेषण अथवा विशेष्य किसी रूप में रहनेवाले चैतन्यांश को लेकर