पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१७७

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रस की नित्यता और स्वतःप्रकाशमानता सिद्ध है और रवि आदि के अंश को लेकर अनित्यता और दूसरे के द्वारा प्रकाशित होना।

चैतन्य के आवरण का निवृत्त हो जाना—उसका अज्ञानरहित हो जाना—ही इस रस की चर्वणा (आस्वादन) कहलाती है, जैसा कि पहले कह आए हैं; अथवा अंतःकरण की वृत्ति के आनंदमय हो जाने को (जैसा कि दूसरा पक्ष है) रस की चर्वणा समझिए। यह चर्वणा परब्रह्म के आस्वाद-रूप समाधि से विलक्षण है, क्योंकि इसका आलंबन विभावादि विषयों (सांसारिक पदार्थों) से युक्त आत्मानंद है और समाधि के आनंद में विषय साथ रह नहीं सकते। यह चर्वणा केवल काव्य की व्यापार-व्यंजना से उत्पन्न की जाती है।

अब यह शंका हो सकती है कि इस आस्वादन में सुख का अंश प्रतीत होता है, इसमे क्या प्रमाण है? हम पूछते हैं कि समाधि में भी सुख का भान होता है, इसमे क्या प्रमाण है? प्रश्न दोनों में बराबर ही है। आप कहेंगे—

"सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्" (भगवद्गीता) "अर्थात् समाधि में जो अत्यंत सुख है, उसे बुद्धि जान सकती है, इन्द्रियाँ नहीं।" इत्यादि शब्द प्रमाणरूप में विद्यमान है; तो हम कहेंगे कि हमारे पास भी दो प्रमाण विद्यमान हैं। एक तो "रसो वै सः" (अर्थात् वह आत्मा रसरूप है) और "रस्ँ ह्येवाऽयं लब्ध्वाऽऽनंदभवति" (रस को प्राप्त होकर ही