पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१८१

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वय और स्थिति आदि सब पदार्थों को साधारण बना देती है, उनमे किसी प्रकार की विशेषता नही रहने देती कि जिससे हमारी रस-चर्वणा मे गड़बड़ पड़े। बस, यह सब कार्रवाई करके वह (भावना ) ठंडी पड़ जाती है। उसके अनंतर एक तीसरी क्रिया उत्पन्न होती है, जिसका नाम है "भोगकृत्त्व", अर्थात् पाखादन करना। उस क्रिया के प्रभाव से हमारे रजोगुण और तमोगुण का लय हो जाता है और सत्त्वगुण की वृद्धि होती है, जिससे हम अपने चैतन्यरूपी आनंद को प्राप्त होकर (सांसारिक झगड़ों से ) विश्राम पाने लगते है, उस समय हमे इन झगड़ों का कुछ भी बोध नही रहता, केवल आनंद ही आनंद का अनुभव होता है। बस, यह विश्राम ही रस का साक्षात्कार (अनुभव) है, और "रस" है इसके द्वारा अनुभव किए जानेवाले रति आदि स्थायी भाव, जिनको कि पूर्वोक्त भावना नामक क्रिया साधारण रूप मे-अर्थात् किसी व्यक्तिविशेष सं संबंध न रखनेवाले बनाकर-उपस्थित करती है। यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि सत्त्वगुण को वृद्धि के कारण जो आनंद प्रकाशित होता है, उससे अभिन्न ज्ञान (चैतन्य ) का नाम ही 'भोग' है और उसके विषय (अनुभव में आनेवाले ) होते हैं रति आदि स्थायी भाव । अत: इस पक्ष मे भी (प्रथम पक्ष की तरह ही ) मोग किए जाते हुए (अर्थात् चैतन्य से युक्त) रति आदि अथवा रति आदि का भोग (अर्थात् रति आदि से युक्त चैतन्य ) इन दोनो