पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१८३

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शकुंतला आदि के साथ प्रेम था। तदनंतर सहृदयता के कारण एक प्रकार की भावना उत्पन्न होती है जो कि एक प्रकार का दोष है। इस दोष के प्रभाव से हमारा अंतरात्मा कल्पित दुष्यंतत्व से आच्छादित हो जाता है-अर्थान् हम उस दोष के कारण अपने को, मन ही मन, दुष्यंत समझने लगते हैं। तब जैसे (हमारे) अज्ञान से ढंके हुए सीप के टुकड़े मे चाँदी का टुकड़ा उत्पन्न हो जाता है-हमे सीप के स्थान मे चाँदी की प्रतीति होने लगती है; ठीक इसी तरह पूर्वोक्त दोष के कारण कल्पित दुष्यंतत्व से आच्छादित अपने आत्मा मे, शकुंतला आदि के विषय मे, अनिर्वचनीय सत् असत् से विलक्षण (अतएव जिनके स्वरूप का ठीक निर्णय नहीं किया जा सकता ऐसी) रति आदि चित्त-वृत्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं अर्थात् हमे शकुन्तला आदि के साथ व्यवहारतः बिलकुल झूठे प्रेम आदि उत्पन्न हो जाते हैं, और वे (चित्तवृत्तियाँ) आत्मचैतन्य के द्वारा प्रकाशित होती हैं। बस, उन्ही विलक्षण चित्तवृत्तियों का नाम "रस" है। यह रस एक प्रकार के ( पूर्वोक्त) दोष का कार्य है और उसका नाश होने पर नष्ट हो जाता है-अर्थात् जब तक हमारे ऊपर उस दोष का प्रभाव रहता है, तभी तक हमे उसकी प्रतीति होती है। यद्यपि यह नतो सुख रूप है, न व्यंग्य है और न इसका वर्णन हो सकता है; तथापि इसकी प्रतीति के अनंतर उत्पन्न होनेवाले सुख के साथ जो इसका भेद है, वह हमे प्रतीत नहीं होता; इस कारण हम इसका