पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१८६

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नायक को दुःख उत्पन्न होता है, उसी प्रकार सहृदय मनुष्य को भी होना चाहिए। यदि आप कहे कि सच्चे शोक आदि से दुःख उत्पन्न होता है, कल्पित से नहीं; अतः नायकों को दु:ख होता है और (कल्पित शोक आदि के अनुभवकर्ता) सहृदय को नहीं। तो हम कह सकते है कि जब हमको रस्सी मे सर्प का भ्रम होता है, तब भी हमे भय और कंप उत्पन्न नही होने चाहिए। दूसरे, यदि आप यह मानते हैं कि कल्पित शोकादिक से दुःख नहीं होता, तो हम कहेंगे कि आपके हिसाव से रति भी कल्पित है, अतः उससे भी सुख उत्पन्न नहीं होना चाहिए। इसका समाधान यह है कि यदि सहदयों के हृदय के द्वारा यह प्रमाणित हो चुका है कि जिस तरह शृंगार-रस-प्रधान काव्यो से आनंद उत्पन्न होता है, उसी प्रकार करुणरस-प्रधान काव्यों से भी केवल आनंद ही उत्पन्न होता है, तो यह नियम है कि "कार्य के अनुरोध से कारण की कल्पना कर लेनी चाहिए अर्थात् जैसे जैसे कार्य देखे जाते हैं, तदनुरूप ही उनके कारण समझ लिए जाते हैं" सो जिस तरह काव्य के व्यापार को आनंद का उत्पन्न करनेवाला मानते हो, उसी प्रकार उसे दुःख का रोकनेवाला भी मानना चाहिए । पर यदि आनंद की तरह दुःख भी प्रमाणसिद्ध है, उसका भी सहृदयों को अनुभव होता है, तो काव्य की क्रिया को दुःख को राकनवाली न मानना चाहिए। काव्य की अलौकिक क्रिया सं आनंद और शोक आदि से दु:ख, इस तरह अपने