पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ७४ )

नामक क्रिया के (जिसे प्राचीन विद्वान् भी मानते हैं) और अनिर्वचनीय ख्याति के (जिसे नवीन विद्वान मानते हैं) मानने की कोई आवश्यकता नहीं, अर्थात रस न तो व्यंग्य है न अनिवचनीय; कितु शकुंतला आदि के विषय मे रति प्रादि से युक्त व्यक्ति के साथ अभेद का मनःकल्पित ज्ञान ही 'रस' है; अर्थात् रस एक प्रकार का भ्रम है, जो पूर्वोक्त व्यक्ति से हमे भूठे ही अभिन्न कर डालता है। उसके द्वारा, पूर्वोक्त दोष के प्रभाव से, हमको अपने आत्मा मे दुष्यंत आदि की तद्रूपता समझ पड़न लगती है, और उसका उत्पन्न करनेवाला है काव्यगत पदार्थों का वार बार अनुसंधान अर्थात् काव्य के पदार्थों को बार बार सोचने विचारने से इस प्रकार का भ्रम उत्पन्न हो जाया करता है। जो दुष्यंत-शकुंतला आदि इस ज्ञान के विपय होते हैं, अर्थात् जिनके विषय मे यह भ्रम होता है, वे विलक्षण हैं, उनका संसार की व्यावहारिक वस्तुओं से कोई संबंध नहीं।

आप कहेंगे कि यदि आप इस तरह के मनःकल्पित ज्ञान को ही रस मानते हैं, तो स्वप्न आदि मे जो इमी प्रकार का मान ज्ञान होता है, आपके हिसाब से, वह भी रस ही हुआ। वे कहते हैं, नहीं; इसी लिये तो हमने लिखा है कि वह काव्य के बार बार अनुसंधान से उत्पन्न होता है। स्वप्न के बोध मे वह बात नहीं है, अतः वह रस नही हो सकता । इस तरह मानने पर भी एक आपत्ति रहती है कि जो रति आदि हमारे