पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ७५ )


अंदर हैं ही नहीं-सर्वथा मनःकल्पित है, उनका अनुभव ही कैसे होगा? पर यह आपत्ति नहीं हो सकती; क्योंकि यह रति आदि का अनुभव लौकिक तो है नहीं, कि इसमे जिन वस्तुओं का अनुभव होता है, उनका विद्यमान रहना आवश्यक हो, कितु भ्रम है। आप कहेगे कि जव रस भ्रमरूप है, तो "रस का प्रावादन होता है। यह व्यवहार कैसे सिद्ध हो सकता है; क्योंकि भ्रम तो स्वयं ज्ञान रूप है उसका आस्वादन क्या? इसका उत्तर यह है कि भ्रम रति आदि के विषय मे होता है, और रति आदि का आस्वादन हुआ करता है (यह अनुभवसिद्ध है); बस, इसी आधार पर यह व्यवहार हो गया है कि 'रसों का प्रास्वादन होता है। वास्तव मे 'रस' का आस्वादन नही होता। वे लोग यह भी कहते हैं। जिसे इस मत के अनुसार रस कहते है, यह ज्ञान तीन प्रकार से हो सकता है। एक यह कि शकुंतला आदि के विपय मे जो रति है, उससे युक्त मैं दुष्यंत हूँ; दूसरा यह कि शकुंतला आदि के विपय मे जो रवि है, उससे युक्त दुष्यंत मैं हूँ और तीसरा यह कि मैं शकुंतला आदि के विषय मे जो रति है, उससे और दुष्यंतत्व से युक्त हूँ। अतः इन लोगों को तीनों प्रकार के ज्ञान को रस मानना पड़ेगा।

अब एक बात और सुनिए। इन तीनों ज्ञानो मे जो रति विशेषणरूप से प्रविष्ट हो रही है, उसकी प्रतीति काव्य के शब्दों से तो होती नही, क्योकि उसमे रति आदि के