शित, अपने आत्मानंद-रूप रस की, निष्पत्ति अर्थात् भोग नामक साक्षात्कार के द्वारा अनुभव होता है" अर्थ है।
तृतीय मत के अनुसार-"विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावो के, संयोग अर्थात् एक प्रकार की भावनारूपी दोष से, दुष्यंत आदि के अनिर्वचनीय रति आदि रूप रस की, निष्पत्ति अर्थात् उत्पत्ति होती है। अर्थ है।
चतुर्थ मत के अनुसार-"विभावादिकों के, संयोग अर्थात् ज्ञान से, एक प्रकार के ज्ञानरूप रस की, निष्पत्ति अर्थात् उत्पत्ति होती है। अर्थ है।
पंचम मत के अनुसार-"विभावादिकों के, संयोग अर्थात् संबंध से, रस अर्थात् रति आदि की, निष्पत्ति होती है अर्थात् वे (नट आदि पर) आरोपित किए जाते हैं।' अर्थ है।
षष्ठ मत के अनुसार-"कृत्रिम होने पर भी स्वाभाविक रूप मे समझे हुए विभावादिकों के द्वारा, संयोग अर्थान् अनुमान के द्वारा, रस अर्थात् रति आदि की, निष्पत्ति होती है अर्थात् अनुमान कर लिया जाता है। अर्थ है।।
सप्तम मत के अनुसार-'विभावादिक वीनो के संयोग अर्थात् सम्मिलित होने से, रस की निष्पत्ति होती है अर्थात् रस कहलाने लगता है। अर्थ है।
अष्टम मत के अनुसार-"विभावादिकों मे से, संयोग अर्थात् चमत्कारी होने से रस कहलाता है" अर्थ है।