पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१९६

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परिमृदितमृणालीम्लानमङ्गं प्रवृत्तिः
कथमपि परिवारप्रार्थनाभिः क्रियासु।
कलयति च हिमांशोर्निष्कलङ्कस्य लक्ष्मी-
मभिनवकारिदन्तच्छेदपाण्डुः कपोलः॥

मालवीमाधव प्रकरण के प्रथम अड्डू का यह श्लोक है। माधव मकरंद से मालती का वर्णन कर रहे है-(मालती के) अंग अत्यंत रौंदी हुई कमल की जड़ के समान हो गए हैं, शरीरस्थितिमात्रोपयोगी क्रियाओं मे-परिवार के प्रार्थना करने पर, बड़ा कठिनता से प्रवृत्ति होती है, अर्थात् एक बार उपक्रममात्र होकर रह जाता है, चेष्टा नहीं होती और नए हाथी-दाँत के टुकड़े के समान श्वेत कपोल कलंकरहित चंद्रमा की शोभा को धारण करने लगे हैं-उनमे ललाई का लेश भी नही रहा है। यहाँ केवल अनुभाव के वर्णन मात्र से ही विप्रलंभ-शृंगार का आस्वादन होने लगता है। ऐसे स्थलों मे अन्य दोनों (जैसे यहाँ विभाव और व्यभिचारी भाव) का आक्षेप कर लिया जाता है। सो यह बात नहीं है कि रस कही सम्मिलितों से उत्पन्न होता है और कही एक ही से, कितु तीनों के सम्मेलन के बिना रस उत्पन्न होता ही नहीं, यह सिद्ध है।

सो इस तरह विद्वानों ने, यद्यपि अनेक प्रकार की बुद्धियों के द्वारा, रस को, अनेक रूपो मे समझा है, आज दिन तक भी इस विषय मे विचार स्थिर नही हो पाए हैं; तथापि इसमे किसी प्रकार का विवाद नही कि, इस संसार मे, रस एक

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