पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१९८

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है, तब भी उसमे भय और क्रोध तो रहते नही; फिर वह उन रसों का अभिनय भी कैसे कर सकता है? यदि आप कहे कि नट मे क्रोध आदि के न होने के कारण, क्रोधादिक के वास्तविक कार्य वध-बंधन आदि के उत्पन्न न होने पर भी शिक्षा और अभ्यास आदि से बनावटी वध-बंधन आदि के उत्पन्न होने में कोई बाधा नहीं होती यह देखा ही जाता है, तो हम कहेंगे कि इस विषय मे भी वैसा ही क्यों नहीं समझ लेते ? दोनों स्थानों पर वही तो बात है। हाँ, आप यह कह सकते हैं कि सामाजिको मे भी, नाटकादि के द्वारा, शांतरस का उदय कैसे हो सकता है? क्योंकि विषयों से विमुख होना ही शांतरस का स्वरूप है, और नाटक में उसके विरोधी पदार्थगीत, वाद्य आदि-विद्यमान रहते हैं; अतः विरोधियों के द्वारा रस का आविर्भाव सिद्ध होना असंभव है। इसका उत्तर यह है कि जो लोग नाटक मे शांतरस को स्वीकार करते हैं, वे गीतवाद्य आदि को उसका विरोधी नही मानते; क्योंकि यदि ऐसा हो तो उनका फल-शांतरस का उदय-ही न बन पावे। दूसरे, यदि आप यावन्मात्र विषयों के चितन को शांतरस के विरुद्ध माने, तो शांतरस का आलंबन-संसार का अनित्य होना एवं उसके उद्दीपन पुराणो का सुनना, सत्संग, पवित्र वन और तीर्थों के दर्शन आदि भी विषय ही हैं, अतः वे भी उसके विरोधी हो जायँगे। इस कारण, यह मानना चाहिए कि जिनमे शांतरस के अनुकूल-संसार से विरक्त होने के उपयोगी वर्णन होता