पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२०२

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कर के समान है। जिस तरह लवणाकर समुद्र मे गिरने से सब वस्तुएँ लोन बन जाती हैं, उसी प्रकार स्थायी भाव से मिलकर सब भाव तद्रूप हो जाते हैं।

जो भाव बहुत समय तक चित्त मे रहते हैं, विभावादिकों से सबंध करते हैं और रस-रूप बन जाते हैं, वे यहाँ (साहित्यशास्त्र मे) स्थायी नाम से प्रसिद्ध हैं। तथा-

जिस भाव का स्वरूप सजातीय और विजातीय भावों से तिरस्कृत न किया जा सके, और जब तक रस का आखादन हो तब तक वर्तमान रहे उसे स्थायी भाव कहते हैं।

कुछ लोग कहते हैं-पूर्वोक्त रति आदि नौ भावों में से अन्यतम (कोई एक) होना ही स्थायी भाव का परिचायक है। सो नहीं हो सकता; क्योंकि रति आदिको मे से किसीएक के बढ़े चढ़े हुए होने पर (उन्हीं में से) यदि अन्य कोई भाव बढ़ा चढ़ा न हो, तो उसको व्यभिचारी भाव माना जाता है। बढ़े चढ़े हुए का क्या अर्थ है सो भी समझ लीजिए। अधिक विभावादिकों से उत्पन्न हुए का नाम 'बढ़ा चढ़ा हुआ' है और थोड़े विभावादिको से उत्पन्न हुए का नाम है 'नहीं बढ़ा चढ़ा हुआ'। अतएव रत्नाकर' मे लिखा है-

रत्यादयः स्थायिभावाः स्युर्भूयिष्ठविभावजाः।
स्तोकैर्विभावैरुत्पन्नास्त एव व्यभिचारिणः॥

अर्थात् अधिक विभावादिकों से उत्पन्न हुए रति आदि स्थायी भाव होते हैं, और वे ही जब थोड़े विभावादिकों से उत्पन्न होते