पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२०९

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ध्वनि के मार्ग को न समझने के कारण लिखा गया है। इस श्लोक मे पार्वती और परमेश्वर के विषय में कवि का प्रेम प्रधान है, और उन दोनों (शिव-पार्वती) का पारस्परिक प्रेम उसकी अपेक्षा गौण हो गया है; और गौण रति आदि के कारण काव्य को 'रस-ध्वनि' कहना उचित नहीं; क्योंकि यह सिद्धांत है-

भिन्नो रसाद्यलङ्कारादलङ्कार्यतया स्थितः।

अर्थात् जिसको अलंकारादिकों से शोभित किया जाता है, वह ( रसादिक) रस-भाव आदि को शोभित करनेवाले अलङ्कार रूप रस आदि से भिन्न है। तात्पर्य यह कि जिनके कारण काव्य को 'ध्वनिरूप' कहा जाता है, वे रसादिक किसी की अपेक्षा गौण नहीं होते, उन्हे अन्य अलंकारादिक शोभित करते हैं, वे किसी को नहीं। दूसरे रसादिको को अलङ्कत करनेवाले रसादिक उनसे भिन्न हैं। यह तो हुई 'संयोग-शृंगार' की बात, अब 'विप्रलंभ-शृंगार' का उदाहरण सुनिए; जैसे-

वाचो माङ्गलिकीः प्रयाणसमये जल्पत्यनल्पं जने
केलीमन्दिरमारुतायनमुखे विन्यस्तवक्त्राम्बुजा।
निःश्वासग्लपिताधरोपरिपतद्वाष्पावक्षोरुहा
वाला लोलविलोचना शिव! शिव! प्राणेशमालोकते॥
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पिय-गौन-समै सब लोग करें बहु भांति उचारन मंगल-बानी।
मुख-कंज दिए रति-मंदिर के सुठि गोख के द्वार महा-अकुलानी॥