पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२११

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जनमी जब ते जग मे सजनी, मधु-धारन की बरसावनहारी।
ब्रजराजकिशोर की कान्ति कछू जन-नैन-विमोहिनी कामनगारी॥
तबते सगरी कुल-नारिन की सब हालत हाय! भई कछु न्यारी।
मुख दीरघ सास, कपालन पै सितता, हिय मे भइ शून्यता भारी॥

जब से मधु बरसानेवाली और सब मनुष्यों के नेत्रों को आकर्षण करने का जादू जाननेवाली नंद-नंदन की अनिर्वचनीय कांति उत्पन्न हुई है तब से कुलांगनाओं के मुख मे दीर्घ श्वास, दोनों कपोलों पर सफेदी एवं चित्त मे शून्यवृत्ति (विचाररहितता) उत्पन्न हो गई है। अथवा, जैसे-

नयनाञ्चलावमर्श या न कदाचित् पुरा सेहे।
आलिङ्गिताऽपि जोष तस्थौ सा गन्तुकेन दयितेन॥

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नैन-कोन को मिलन जो सहन कियो कबहूँ न।
आलिङ्गित हू पिय-गवन वहै करति है चूँ न।

जिस नायिका ने, पहले कभी, नेत्र के प्रांत का मिल जाना भी सहन न किया था, वही (वियोग के समय) परदेश जानेवाले पति से आलिंगन की हुई भी चुप खड़ी थी, चूँ भी न करती थी। इस पद्य मे भी स्वाभाविक चंचलता की निवृत्ति अनुभाव और जड़ता व्यभिचारी भाव है।

प्राचीन आचार्यों ने इस विप्रलंभ रस-को प्रवास आदि उपाधियों से पॉच प्रकार का माना है, पर