पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२१६

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मेरो फरसा पड़े तासु ऊपर निदेय-मन।
ह्वै जावै परतच्छ वच्छ को सब नव-जौवन॥

सीता-स्वयंवर मे, परशुराम ने, जब धनुष के टुकड़े हुए देखे तो उनसे न रहा गया। वे वोले-किसी को, नवयौवन की उमंग के कारण, अभिमानरूपी चर तेज हो गया है, तभी तो उसने निर्भय होकर मेरे गुरु-भगवान शिव का धनुष तोड़ डाला। अच्छा, अब (मेरी इच्छा है कि) उसके ऊपर यह मेरा भयंकर फरसा निर्दयता के साथ गिरे, जिसने काटे हुए अभिमानी भूमिपतियों के गले से झरते हुए रुधिर का पान किया है। मैं चाहता हूँ कि उस उन्मत्त की निर्दयतापूर्वक खबर ली जाय।

यहाँ जिसको परशुराम ने, उस समय, यह नही जाना था कि 'यह भगवान राम हैं', वह गुरु (शिवजी) के धनुष को तोड़ देनेवाला आलवन है। गुरुद्रोही का नाम न लेना चाहिए इस कारण, अथवा क्रोध उत्पन्न हो जाने के कारण, 'वाड़नेवाला' यह विशेषण मात्र ही कहा गया है, विशेष्य (तोड़नेवाले का नाम) नहीं कहा गया। एक प्रकार की भुवन व्यापी ध्वनि से अनुमान किया हुआ 'निर्भय होकर धनुष तोड़ देना' उद्दीपन है, कठोर वचन अनुभाव है और गर्व, उग्रता आदि संचारी भाव हैं। यह धनुष के भग की ध्वनि से समाधि टूट जाने पर परशुरामजी की उक्ति है। इस पद्य की अत्यंत उद्धत रचना भी रौद्ररस की परम ओजस्विता को पुष्ट करती है।