पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२१८

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से नीचे का होठ फड़कने लगा और नेत्रों से आग की चिनगारियों का भारी समूह निकलने लगा, ऐसी दशा मे रामचंद्र पर आक्षेप करते हुए मुनि परशुराम सबसे उत्कृष्ट हैं।

यहाँ भी, यद्यपि अपराधपात्र भगवान रामचंद्र पालंबन हैं, धनुष टूटने के शब्द का सुनना उद्दीपन है, श्वास तथा नेत्रों का जलना आदि अनुभाव है, पिता के वध का स्मरण, गर्व और उप्रता आदि संचारी भाव है और इनके द्वारा क्रोध अभिव्यक्त होता है; तथापि जिसके कारण कवि ने परशुरामजी का वर्णन किया है, उस कवि के प्रेम की अपेक्षा क्रोध गौण हो गया है, अतः उसके कारण इस पद्य को रौद्र-रस की ध्वनि नही कहा जा सकता।

अच्छा, अब यहाँ एक प्रसंगप्राप्त वात भी सुन लीजिए। 'काव्य-प्रकाश' मे रौद्र-रस का यह उदाहरण दिया गया है-

'कृतमनुमतं दृष्टं वा यैरिदं गुरुपातकम्
मनुजपशुभिर्निर्मर्यादैर्भवद्भिरुदायुधैः।
नरकरिपुणा सार्द्धं तेषां सभीमकिरीटिना-
मयमहमसृङ्मेदोमांसैः करोमि दिशां वलिम्॥'

'वेणीसंहार' नाटक के तृतीय अंक में द्रोण-वध से कुपित अश्वत्थामा की, अर्जुन आदि के प्रति, यह उक्ति है-

शस्त्र उठानेवाले जिन मर्यादारहित, नरपशुओ ने गुरु (द्रोणाचार्य) का वधरूपी पातक किया है या उसमे अनुमति दी