पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२२१

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कहा, 'देवा हूँ' अथवा 'वितरण करता हूँ' नहीं। निम्नलिखित पद्य 'दान-वीर' का उदाहरण नही हो सकता-

यस्योद्दामदिवानिशार्थिविलसद्दानप्रवाहप्रथा-
माकर्ण्यावनिमण्डलागतवियद्बन्दीन्द्रवन्दाननात्।
ईर्ष्यानिर्भरफुल्लरोमनिकरव्यावल्गदूधःस्रव-
त्पीयूषप्रकरैः सुरेन्द्रसुरभिः प्रावृट्पयोदायते॥

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जाचक-जन-हित नित्य सुभग निरवधि वितरन ते।
उपजी कीरति जासु, फिरे जे मनुज-भुवन ते॥
तिन बंदिन मुख जानि होत ईर्ष्या अति भारी।
ताते इकदम फूलि उठत रोमावलि सारी॥
सो चञ्चल-गादी गिरत नव-पय-चय-प्रासार सन।
होत सुरेश्वर की सुरभि ज्यो पावस को सघन घन॥

भूमंडल से लौटकर आए हुए स्वर्गीय बंदीजनो के समूह के मुख से, जिसकी, याचक लोगों में सुशोभित होनेवाली रात-दिन दान के प्रवाह की ख्याति को सुनकर ईर्ष्या के कारण अत्यंत पुलकित कामधेनु फड़कती हुई गादी मे से झरते हुए नवीन दुग्ध के समूहों के कारण वर्षा ऋतु के मेघ सी वन जाती है उसके स्तनों से दूध की अविरल धारा प्रारंभ हो जाती है।

यहाँ इंद्र-सभा मे बैठे हुए सब दर्शक लोग आलंवन है, भूमंडल से आए हुए स्वर्गीय वदीजना के मुख से किए हुए राजा