पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १०९ )


यन किया है, आपकी वीरता तो आपके कर्तव्यों से ही स्पष्ट है। उसके वर्णन के लिये शब्द नही मिलते। आपके त्याग का तो कहना ही क्या? सप्त समुद्र मुद्रित पृथ्वी का, बिना किसी लगाव या स्वार्थ के, दे डालना हँसी खेल नहीं है। आप ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनो की तपस्या के निधान हैं। आपकी सभी बातें निराली है। वह उदाहरण ठीक नही; क्योंकि वह भी दूसरे का अग होने से गुणीभूत व्यंग हो गया है। 'रसध्वनि' मे वह उदाहरण उचित नहीं।

यहाँ एक शंका हो सकती है कि आपने जो 'दान-वीर' का उदाहरण दिया है 'अकरुणमवकृत्य.....इत्यादि'; उसमें प्रतीत होनेवाला 'दान-वीर (रस)' भी कर्ण की स्तुति का अंग है-उससे भी कर्ण की प्रशंसा सूचित होती है, अतः उसे आपने ध्वनि-काव्य कैसे बताया? हाँ, यह सच है; पर, थोड़ा ध्यान देकर देखिए, उस पद्य मे कवि का तात्पर्य तो कर्ण के वचन का केवल अनुवाद करने मात्र मे है, कर्ण की स्तुति करना तो उसका प्रतिपाद्य है नही, और कर्ण है महाशय, इस कारण उसका भी अपनी स्तुति मे तात्पर्य हो नहीं सकता, क्योंकि अपनी बड़ाई करना क्षुद्राशयों का काम है। सो उस वाक्य का अर्थ (तात्पर्य) तो कर्ण की स्तुति है नहीं, किंतु वीर-रस की प्रतीति के अनंतर, वैसे उत्साह के कारण, रसज्ञो के हृदय मे वह (स्तुति) अनुमित होती है। पर जहाँ राजा का वर्णन हो, वहाँ तो राजा की स्तुति मे ही पद्य का तात्पर्य रहता है।