पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२२७

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देखै मम कोदंड-मुक्त-शर-वेगहिँ तू जनि।
समुझै सगरे ठामु बापुरे दीन-देवतनि॥

हे दशानन! बेचारे देवताओं को रण में भगाकर भारी सामर्थ्य रखनेवाले तेरे विषय मे तो मेरी यह तैयारी क्या हो सकती है-तू तो चीज ही क्या है; पर जिनके ललाट से निकली हुई ज्वालाओं से सारे संसार का वैभव भस्म हो जाता है, वे महादेव, मेरे धनुष से निकले हुए बाणो के वेग को झेले। तात्पर्य यह कि तुझे तो मैं समझता ही क्या हूँ, पर यदि समग्र संसार के संहारक भगवान शिव भी आवें तो वे भी मेरे बाणों के वेग को देखकर चकित हो सकते हैं। यह रावण के प्रति भगवान राम की उक्ति है।

यहाँ महादेव आलंबन है, रण का देखना उद्दीपन है, रावण की अवज्ञा अनुभाव है और गर्व संचारी भाव है। रचना देवताओं के प्रस्ताव मे उद्धत नहीं है, जिसके द्वारा उनकी कायरता प्रकट होती है, और उससे यह सिद्ध होता है कि भगवान् रामचद्र उनको वीर-रस का आलंबन नही समझते। हाँ, रावण के प्रस्ताव मे देवताओं के दर्द को दमन करनेवाली वीरता का प्रतिपादन करना है, अत: उद्धत है, पर उसकी अवज्ञा की गई है, राम उसे अपनी बराबरी का नही समझते, अतएव वह उनके उत्साह का आलंबन नहीं है सो उसे आलंबन मानकर रस की प्रतीति नहीं हो सकती; इस कारण उस रचना मे उद्धतता का आधिक्य नहीं है। पर, भगवान् शिव परम