पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२२८

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उत्तम आलंबन विभाव हैं, और उनको पालंवन मान कर ही ओजस्वी वीर-रस संपन्न होता है, अतः उनके प्रस्ताव में पूर्णतया उद्धव रचना है।

चौथा धर्मवीर; जैसे-

सपदि विलयमेतु राज्यलक्ष्मीरुपरि पतन्त्वथवा कृपाणधाराः।
अपहरतुतरां शिरः कृतांतो मम तु मतिर्न मनागपैति धर्मात्॥

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विलय होहु ततकाल राज्य लक्ष्मी मम सारी।
अथवा ऊपर परहु खरग-धारा भयकारी॥
हरहु कालहू सीस सहूंगो अविचल सब यह।
मेरी मति तो डिगै धरम ते तनिक न अब यह॥

चाहे, राज्य लक्ष्मी तत्काल विलीन हो जाय, अथवा वलवारों की धाराएँ सिर पर पड़ें, यद्वाखयं काल शिर उतार ले पर मेरी बुद्धि तो धर्म से किचिन्मान भी नही हटती। यह 'अधर्म से भी शत्रु को जीतना चाहिए' यों कहनेवाले के प्रति महाराज युधिष्ठिर का कथन है।

यहाँ धर्म आलंबन है, "न जातु कामान भयान लोभाद्धमत्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः(महाभारत उ॰ पर्व) जीवन के लिये भी कभी न छोड़ना चाहिए)" इत्यादि शास्त्रीय वाक्यों की आलोचना उद्दीपन है, सिर के कटने आदि का अंगीकार करना अनुभाव है और धृति संचारी भाव है।

र॰-८