पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२२९

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वीर-रस के, चार ही नहीं, अनेक भेद हो सकते हैं।

इस तरह प्राचीन आचार्यों के अनुरोध से वीर-रस का चार प्रकार से वर्णन किया गया है; पर वास्तव मे विचार किया जाय तो, शृंगार की तरह, वीर-रस के भी बहुतेरे भेद निरूपण किए जा सकते हैं। देखिए, यदि पूर्वोक्त 'सपदि विलयमेतु" ...' इत्यादि अथवा 'विलय होहु वतकाल....' इत्यादि पद्य मे 'मम तु मतिर्न मनागपैति सत्यात्' अथवा 'मेरी मति तो डिगै सत्य ते तनिक न अब यह' इस तरह अंतिम चरण बदल दिया जाय तो 'सत्य-वीर' भी एक भेद हो सकता है। आप कहेगे कि सत्य भी धर्म के अन्तर्गत है, इस कारण 'धर्मवीर-रस' में ही 'सत्य-वीर' का भी समावेश हो जाता है। तो हम कहते हैं कि दान और दया भी धर्म के अंतर्गत ही हैं, फिर 'दानवीर' और 'दया-वीर' को भी अलग गिनना अनुचित है।

इसी तरह 'पांडित्य-वीर' भी प्रचीव होता है; जैसे-

अपि वक्ति गिरां पतिः स्वयं यदि तासामधिदेवताऽपि वा।
अयमस्मि पुरो हयाननस्मरणोंळधितवाङ्मयाम्बुधिः॥

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यदिं बोलैं वाक्पति स्वयं के सारद हू आइ।
हूँ तयार, हयमुख सुमिरि, सब-विधि विधा पाइ॥

सभा में बैठकर एक पंडितजी कह रहे हैं-यदि स्वयं बृहस्पति अथवा वाग्देवी भी बोलें, तो भी भगवान् हयग्रीव के स्मरण से समप्र साहित्य-समुद्र को पार करनेवाला यह मैं