पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२३२

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अद्भुत-रस; जैसे-

चराचरजगज्जालसदनं वदनं तव।
गलद्गनगांभीर्य वीक्ष्यास्मि हतचेतना॥

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थावर-जंगम-जगत-गन-सदन बदन तुव जोह।
गई गगन की गहनता रही चेतना खोइ॥

जिसमे सव स्थावर और जंगम जगत निवास करता है, और जिसके देखने पर आकाश की भी गंभीरता गिर जाती है, उस तेरे मुख को देखकर मेरी बुद्धि नष्ट हो गई है मेरी प्रकल काम नहीं करती कि यह है क्या गजब ! यह, किसी समय, भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविंद को देखने के अनंतर, यशोदाजी की उक्ति है।

यहाँ मुख प्रालंबन है, उसके भीतर समग्र स्थावर-जंगम जगत् का देखना उद्दीपन है, बुद्धि का नष्ट हो जाना एवम् उसके द्वारा प्रतीत होनेवाले रोमांच, नेत्रों का विकसित हो जाना आदि अनुभाष हैं और त्रास-आदि व्यभिचारी भाव हैं । यहाँ पुत्र का प्रेम यद्यपि विद्यमान है, तथापि प्रतीत नहीं होता; क्योंकि उसका कोई व्यंजक शब्द नही है-इस पथ के किसी शब्द से उसकी प्रतीति नही होती। यदि प्रकरणादिक की पर्यालोचना करने पर वह प्रतीत भी हो जाय, तथापि आश्चर्य उसकी अपेक्षा गाय नहीं हो सकता। क्योंकि समझने की शक्ति ही जाती रही ऐसा कहने से आश्चर्य की ही प्रधानता