पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १२० )

दादाजी किय दंग बुधन, लेख लिखि यह जुगति-
सुचि गौ-पूरब-अंग रासभ-रानी को न क्यों?

श्रीमान् पिताजी ने जो निबंध लिखा है, उसमे यह एक नई युक्ति वर्णन की गई है। वह युक्ति यह है-आश्चर्य है कि यदि गायों का पूर्व अंग पवित्र है तो गर्दभ महाशय की धर्मपत्नीजी का वह अंग क्यों न पवित्र माना जाय? अर्थात् गौ और गर्दभी एक समान हैं।

यहाँ तार्किक (युक्ति सोचनेवाले) का पुत्र आलंवन है, उसका शंकारहित कथन उद्दीपन है, दाँत निकलना आदि अनुभाव है और उद्वेग आदि व्यभिचारी भाव हैं।

हास्य के भेद

हास्य-रस के विषय मे प्राचीन आचार्यों का कथन है कि-

आत्मस्थः परसंस्थश्चेत्यस्य भेदद्वयं मतम्।
आत्मस्थो द्रष्टुरुत्पन्नो विभावेक्षणमात्रतः॥
हसंतमपरं दृष्ट्वा विभावश्चोपजायते।
योऽसौ हास्यरसस्तः परस्थः परिकीर्तितः॥
उत्तमानां मध्यमानां नीचानामप्यसौ भवेत्।
व्यवस्था कथितस्तस्य षड़ भेदाः सन्ति चाऽपरे॥
स्मित च हसितं प्रोक्तमुत्तमे पुरुषे बुधैः।
भवेद्विहसित चोपहसितं मध्यमे नरे॥