पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १२६ )


व्यवहार में प्रयुक्त हो चुके हैं उनका अन्य अवस्था में भी उसी प्रकार व्यवहार होता है, और ये रस तभी कहे जाते हैं जब ये असंलक्ष्यक्रमव्यङग्य के रूप में रहते हैं। संलक्ष्यक्रम होने से तो इनका वस्तु शब्द से ही व्यवहार होता है।

ये 'असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य' क्यों कहलाते हैं?

ये रस 'असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य' कहलाते हैं, क्योंकि सहृदय पुरुष को जब सहसा रस का आखादन होता है, उस समय, यद्यपि विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावो के. विमर्श का क्रम रहता है, तथापि जिस तरह शतपत्र कमल के सौ-के-सौ पत्रों को सूई से बेधन किया जाता है, उस समय, यह तो जान पड़ता है कि सौ-के-सौ ही पत्र विध गए; पर उनमे से कौन पहले विधा और कौन पीछे-इतना सोचने का अवसर ही नहीं मिलता, इसी प्रकार यहाँ भी, शीघ्रता के कारण, वह क्रम विदित नहीं हो पावा। परन्तु यह समझना उचित नहीं कि ये विना क्रम के ही व्यंग्य हैं इनका और व्यंजक विमावादिकोका कोई क्रम है ही नहीं, क्योंकि यदि ऐसा हो, तो रस की अभिव्यक्ति का और अभिव्यक्ति के कारणों का कार्यकारणभाव ही न बन सके-अर्थात विभावादिकों का रस के कारण रूप होना ही निर्मूल हो जाय, जो कि प्रतीति से सरासर विरुद्ध है।

रस नौ ही क्यों हैं?

अब यह प्रश्न होता है कि रस इतने ही क्यों हैं, यदि इनसे अधिक रस माने जायँ तो क्या बुराई है? उदाहरय