पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२४३

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क्या है? अथवा भगवद्भक्ति को ही स्थायी भाव मान लीजिए और कामिनी आदि के विषय में जो प्रेम होता है, उसे (संचारी) भाव: क्योंकि उसमें कोई युक्ति तो है नहीं कि इन दोनों मे से अमुक को ही स्थायी मानना चाहिए। इसके उत्तर मे हम कहते हैं कि साहित्य शास्त्र मे रस-भाव-आदि की व्यवस्था भरत-आदि मुनियों के वचनों के अनुसार की गई है, अतः इस विषय मे खतंत्रता नहीं चल सकती। अन्यथा पुत्र आदि के विषय मे जो प्रेम होता है, उसे 'स्थायि भाव' क्यों न माना जाय और 'जुगुप्सा' और 'शोक' आदि को भाव ही क्यों न मान लिया जाय। यदि ऐसा करने लगें तो सारे शास्र मे ही बखेड़ा पड़ जाय और भरत-मुनि के वचन के अनुसार नियत की हुई जो रसों की नौ संख्या है, वह टूट जाय और वे कभी अधिक और कभी कम मान लिए जाया करें । इस कारण शास्त्र के अनुसार मानना ही उत्तम है।

रसों का परस्पर विरोध और विरोध

इन रसों का आपस में किसी के साथ अविरोध है और किसी के साथ विरोध। उनमे से वीर और शृगार का, शृगार और हास्य का, वीर और अद्भुत का, वीर और रौद्र का एवं शृंगार और अद्भुत का परस्पर विरोध नहीं है। श्रृंगार और बोभत्स का, शृंगार और करुण का, वीर और भयानक का, शांत और रौद्र का एवं शांत और शृंगार का विरोध है। यदि कवि प्रस्तुत रस को अच्छी तरह पुष्ट करना चाहे