पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२४५

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उनमें ज्ञानविरोध होता है। उनमें से पहला विरोध विरोधी रस को दूसरे आधार मे स्थापित कर देने से निवृत्त हो जाता है। जैसे कि यदि नायक मे वीर-रस का वर्णन करना हो, तो प्रतिनायक (उसके शत्रु) में भयानक का वर्णन करना चाहिए।

इस प्रकरण मे रस-पद से रसों के उपाधिरूप स्थायी भावों का ग्रहण किया गया है; क्योंकि रस तो दर्शक-समाज की व्यक्तियों में रहता है, नायक आदि में नहीं। एवं रस अद्वितीय आनंद-मय है, अर्थात् जब उसकी प्रतीति होती है, तब अन्य किसी की प्रवीति होती ही नहीं, तब उसके विरोध की बात ही चलाना अनुचित है।

विरुद्ध-रसों का स्थिति-विरोध कैसे मिटाया जा सकता है, इसका उदाहरण लीजिए-

कुण्डलीकृतकोदण्डदोर्दण्डस्य पुरस्तव।
मृगारातेरिव मृगाः परे नैवाऽवतस्थिरे॥

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कुंडल-सम धनु कर लिए तुव आगे रन-माहिं।
केहरि-समुहै मृग-सरिस ठहरि सके परि नाहिं॥

कवि कहता है-हे राजन्! जब आपने बैंचकर कुंडल के समान गोल किए हुए धनुष को हाथ मे लिया, तो आपके सामने सिंह के सामने मृगों के समान, शत्रु नही ठहर सके। (यहाँ नायक मे 'वीर' और प्रतिनायक मे 'भयानक' का वर्णन स्पष्ट ही है।)