पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२४६

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यह तो हुई पहले प्रकार के विरोध को निवृत्त करने की बात। अब दूसरे प्रकार के विरोध को निवृत्त करने की विधि भी सुनिए। वह (ज्ञान) विरोध भी, जो रस दोनों रसों का विरोधी न हो, उसे संधि (सुलह) करवानेवाले की तरह, विरुद्ध-रसों के बीच मे स्थापित कर देने से निवृत्त हो जाता है। जैसे कि मेरी (पंडितराज की) बनाई हुई आख्यायिका में कण्वाश्रम में स्थित महर्षि श्वेतकेतु के शांत-रस-प्रधान वर्णन के प्रस्तुत होने पर "यह कैसा रूप है, जिसका कमो अनुभव नहीं किया गया; यह वचन-माला की कैसी मधुरता है, जिसका वर्णन नहीं हो सकता" इस तरह अद्भुत-रस को मध्य में स्थापित करके वरवणिनी नामक नायिका के प्रति प्रेम का वर्णन किया गया है। वहाँ शान्त और शृङ्गार के मध्य में अदभुत आ जाने से विरोध हट गया अथवा जैसे-

सुराङ्गनाभिराश्लिष्टा व्योम्नि वीरा विमानगाः।
विलोकन्ते निजान् देहान् फेरुनारीभिरावृतान्॥

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सुर-नारिन सँग गगन में वीर विराजि विमान।
निरखत स्यारिन में घिरे अपने देह महान॥

देवांगनाओं से आलिंगन किए हुए, आकाश मे, विमानों मे बैठे हुए वीर, मादा-सियारों से घिरे हुए, अपने देहों को देख रहे हैं।