पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२५३

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इस कारण प्रस्तुत भावों की अभिव्यक्ति न हो सकेगी, पर यह ठीक नहीं; क्योंकि जिस समय प्रस्तुत भावों को अभिव्यक्त करनेवाले शब्दों और अर्थों का ज्ञान होगा, उस समय विरोधी रस के अंगरूप भावों को अभिव्यक्त करनेवाले शब्दों और प्रों का ज्ञान नहीं रह सकता; इस कारण एक दूसरे को प्रतिबध्य (रुकनेवाला) और प्रविबंधक (रोकनेवाला) मानने मे कोई प्रमाण नही। दूसरे, यदि ऐसा मान लिया जाय तो, विरोधी भावों का एक पद्य मे एकत्र होना, जिसे भाव-शबलता कहते हैं, सर्वथा उच्छिन्न हो जाय, जो कि सर्व-संमत है। रस की अमिव्यक्ति का रुक जाना तो अनुभव-सिद्ध है, इस कारण विरोधी रस के प्रबल अंगों के अभिव्यक्त होने को रस की अभिव्यक्ति का ही प्रतिबंधक मानना उचित है, व्यभिचारी भावों का नहीं।

जहाँ एक से विशेषणों के प्रभाव से दो विरुद्ध-रस अभिव्यक्त हो जाते हैं, वहाँ भी उनका विरोध निवृत्त हो जाया करता है; जैसे

नितान्तं यौवनोन्मत्ता गाढरक्ताः सदाऽऽहवे।
वसुंधरां समालिङ्गय शेरते वीर! तेऽरयः॥

हे वीर! जवानी से अत्यंत उन्मत्त हुए और रण मे सर्वदा गहरे रक्तवाले-खूब चोट खाए हुए अथवा अत्यंत अनुरक वेरे शत्रु लोग पृथ्वी से चिपटकर सो रहे हैं। यहाँ समान विशेषणों के द्वारा वीर के साथ साथ उसके विरोधी शृंगार की भी प्रतीति होती है।