पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२५४

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रस-वर्णन में दोष

इस तरह विरोध मिटा देने पर भी जिस रस का वर्णन किया जाय, उसको 'रस' शब्द अथवा 'शृंगार-आदि' शब्दों से बोल देना अनुचित है; क्योंकि ऐसा करने से रस आस्वादन करने योग्य नही रहता-प्रकट हो जाने के कारण उसका मज़ा जाता रहता है; इसी लिये पहले कह चुके हैं कि रस का आस्वादन केवल व्यंजना वृत्ति से ही सिद्ध होता है। आप पूछ सकते हैं कि जहाँ विभावादिकों से अभिव्यक्त हुए रस को उसका नाम लेकर वर्णन कर दिया जाय, वहाँ कौन दोष होता है? तो उत्तर यह है कि व्यंग्य को वाच्य बना देने से सभी व्यंग्यों मे 'वमन' नामक दोष होता है, जिसका वर्णन आगे किया जायगा। यह तो हुई सामान्य दोष की बात। पर रसों का जिस रूप मे प्रास्वादन किया जाता है, वह प्रतीति, वाच्य-वृत्ति (अभिधा) के द्वारा, अर्थात् उन रसों का नाम लेने से उत्पन्न नहीं हो सकती, अतः जहाँ रसों का वर्णन हो, उस स्थल पर ऐसा करना बंदरे की सी चेष्टा है- अर्थात् जिस तरह बंदर अपने घाव को, ठोक करने के लिये, खोदकर और बिगाड़ डालता है उसी प्रकार इस चेष्टा से भो रस-वर्णन उत्तम होने के स्थान पर और भी बिगड़ जाता है। सो रसों के विषय मे तो यह विशेष दोष भी है। इसी तरह स्थायी भावों और व्यभिचारी भावों को भी अभिधा शक्ति के द्वारा वर्णन करना-उनके नाम ले लेकर लिखना-दोष है। इसी