पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२५५

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तरह विभावों और अनुभावों का अच्छी तरह प्रतीत न होना अथवा विलंब से प्रतीत होना दोष है; क्योंकि ऐसा होने से रस का आखादन नहीं हो पाता। विरोधी रसों के (प्रस्तुत रसों के अङ्गों की अपेक्षा) समबल अथवा प्रबल अंगों का वर्णन करना भी दोष है; क्योंकि यह वर्णन जिस रस का वर्णन किया जा रहा है, उसके प्रतिकूल है। किसी भी निबंध मे जिस रस का वर्णन चल रहा हो, वह यदि किसी दूसरे प्रसग के कारण विच्छिन्न हो जाय, तो उसको फिर से दीपन करने से-गए किस्से को दुबारा उठाने से-विच्छिन्न-दीपन' नामक दोष होता है। कारण कि मध्य मे उच्छिन्न हो जाने से सहृदयों को पूर्णरूप से रसास्वाद नहीं होता इसी तरह जहाँ जिस रस के प्रस्तुत करने का अवसर न हो, वहाँ उसका प्रस्तुत करना और जहाँ उसे विच्छिन्न न करना चाहिए, वहाँ विच्छिन्न कर देना दोष है। जैसे-संध्यावंदन, देव-यजन-आदि धर्म का वर्णन प्रस्तुत हो, उस समय किसी कामिनी के साथ किसी कामी का प्रेमवर्णन करने मे। अथवा, जैसे-महायुद्ध मे मदमत्त शत्रुवीर उपस्थित हों और मर्मभेदी वचन बोल रहे हों, ऐसे समय नायक के संध्या-वंदन आदि का वर्णन करने मे। ये दोनों ही बातें अनुचित हैं।

इसी प्रकार जिसका प्रधानतया वर्णन न हो, उस प्रतिनायक आदि के नाना प्रकार के चरित्र और अनेक प्रकार की संपदाओं की, नायक के चरित और संपदाओं से, अधिकता