पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२५८

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रोग आदि और पृथ्वी मे अमृत-पान आदि। काल के विरुद्ध जैसे-ठंड के दिनों मे जलविहार आदि और गरमी के दिनों मे अग्नि-सेवन प्रादि। वर्ण के विरुद्ध, जैसेब्राह्मण का शिकार खेलना, क्षत्रिय का दान लेना और शुद्र का वेद पढ़ना। आश्रम के विरुद्ध; जैसे-ब्रह्मचारी और संन्यासी का तांयूल चवाना और स्त्री को खीकार करना । अवस्था के विरुद्ध, जैसे-बालक और बूढ़े का स्त्री-सेवन और युवा पुरुष का वैराग्य । स्थिति के विरुद्ध जैसे-दरिद्रियों का भाग्यवानों जैसा आचरण और भाग्यवानों का दरिद्रियों जैसा आचरण।

अब प्रकृतियों की बात सुनिए। साहित्य-शास्त्र के अनुसार तीन प्रकार की प्रकृतियाँ (नायक की) होती हैं कुछ दिव्य (देवतारूप इन्द्र आदि), कुछ अदिव्य (मनुष्यरूप दुष्यन्त आदि) और कुछ दिव्यादिव्य (जो स्वर्गीय होने पर भी अबतार रूप होने से मनुष्य हैं राम, कृष्ण प्रादि) होते हैं । इसी तरह उन प्रकृतियो के दूसरे भेद-नायक धीरोदात्त जिनमे ' उत्साह प्रधान होता है, धीरोद्धत-जिनमे क्रोध प्रधान होता है, धीर-ललित-जिनमे स्त्री-विषयक प्रेम प्रधान होता है और धीर-शांत-जिनमे वैराग्य प्रधान होता है, होते हैं। पूर्व भेदों से बारह प्रकार के नायक उत्तम, मध्यम और अधम के भेद से छचीस प्रकार के होते हैं। इन नायकों में यद्यपि भय के अतिरिक्त अन्य सब रति आदि स्थायी भाव सर्वत्र