पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२६१

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अनौचित्य से रस की पुष्टि

हाँ, जितने अनौचित्य से रस की पुष्टि होती हो, उतने अनौचित्य का वर्णन निषिद्ध नहीं है, क्योंकि जो अनुचितता रस के प्रतिकूल हो, वही निषेध करने के योग्य है। इसी कारण-

ब्रह्मन्नध्ययनस्य नैष समयस्तूष्णीं वहिः स्थीयताम्
स्वल्पं जल्प वृहस्पते! जडमते नैषा सभा वज्रिणः।
वीणां संहर नारद! स्तुतिकथालापरलं तुम्बुरो!
सीतारल्लकभल्लभग्नहृदयः स्वस्थो न लङ्केश्वरः॥

ब्रह्मन्! यह वेदपाठ का समय नहीं है, चुप-चाप बाहर बैठो, वृहस्पते! जो कुछ कहना है थोड़े मे कहो। मूढ़! यह इंद्र की सभा नहीं है कि घंटों वक-वक करते रहो; नारद! अपनी वीणा समेट लो; हे तुंवुरो! इस समय स्तुतिकथाएँ-खुशामद की बातें न करो, क्योंकि सीता की विरौनियो के भालों से लंकेश्वर महाराज रावण का हृदय घायल हो गया है, वे स्वस्थ नहीं हैं। इस किसी नाटक के पद्य में, ब्रह्मादिकों के विरस्कार के लिये वोले गए द्वार-पाल के वचन की अनुचितता दोष नहीं है; क्योंकि उससे रावण के परमऐश्वर्य की पुष्टि होती है और उसके द्वारा वीर-रस का आक्षेप होता है, जो कि विप्रलंभ-शृंगार (रसाभास) का अंग हो गया है।