पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२६७

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तो उन्हें माधुर्य-श्रादि कहा जाता है। तब आप कह सकते हैं कि-यदि प्रयोजकता संबंध से रहनेवाली दुति-आदि चित्तवृत्तियों का नाम ही माधुर्य है, ता 'शृङ्गाररस मधुर ( माधुर्यगुण से युक्त) होता है। यह व्यवहार न बन सकेगा; क्योंकि द्रुति-आदि चित्तवृत्तियाँ रसों मे रहती तो हैं नही, उनसे उभार दी जाती हैं, फिर रसों को माधुर्य से युक्त कैसे कहा जा सकता है ? हम कहते हैं कि जिस तरह असगंध ( एक औषध ) उष्णता को उत्पन्न करती है उसके खाने से शरीर मे उष्णता उत्पन्न होती है, इस कारण लोग कहते हैं कि 'असगंध गरम होती है', इसी प्रकार शृंगार-आदि माधुर्य-आदि के प्रयोजक (उत्पादक) होते हैं, अतः उनको मधुर कहा जाता है।

पर, संसार के जितने काम हैं, उन सबकी प्रयोजकता अदृष्ट ( धर्म, अधर्म ) आदि मे भी रहा करती है, बिना अदृष्ट आदि के प्रयोजक हुए कोई काम होता ही नहीं, अतः यह तो मानना ही पड़ेगा कि यह प्रयोजकता उससे भिन्न है, जो कि शब्द, अर्थ, रस और रचना मे रहती है। बस, यहाँ उसी का ग्रहण करना चाहिए जिससे कि पूर्वोक्त व्यवहार की अदृष्ट आदि मे अतिव्याप्ति नहीं हो सके। तात्पर्य यह है कि अदृष्ट आदि मे जो प्रयोजकता है, वह दूसरे ढंग की है और शब्दअर्थ आदि मे जो प्रयोजकता है, वह दूसरे ढंग की; अत: द्रुति आदि की प्रयोजकता के रहने पर भी अदृष्ट आदि को मधुर नही कहा जाता। तब यह सिद्ध हुआ कि इस ढंग का माधुर्य